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वह छतरी के नीचे खड़ी है, जबकि बारिश की एक बूँद भी नहीं गिरती। चारों ओर असंख्य बुलबुले रात में तैरते हैं, नाज़ुक पर अनंत से लगते हैं। हर चमक क्षणभंगुर सपनों की फुसफुसाहट है, जिन्हें वह छूना चाहती है, पर थाम नहीं सकती। छतरी एक सवाल बन जाती है—यह उसे किससे बचाती है, अगर मृगतृष्णा की कोमलता से नहीं? नाज़ुक रोशनी में लिपटी, उसका हृदय उस अप्राप्य सुंदरता से कसक उठता है।
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