बादलों की तह में मैं अब भी घोड़ा था—ज़मीन मुझे बाँधे, खुरों के गोल निशान। तेज़ दौड़ा, पर मन बंधा रहा। एक सुबह आकाश की नीली अंगूठी ने बुलाया: नमकीनी हवा, ठंडी रोशनी, बिना जल्दबाज़ी की शांति। मैंने धीरे-धीरे पंख याद किए। हर उछाल पर भीतर एक बयार खिली, अनाड़ी पंख रगड़े। ऊँचा उड़ना ज़रूरी नहीं—आज बस वहाँ जाऊँगी जहाँ दिल हल्का हो। दूर दुनिया भागती रहे, कदम मेरा होगा। घेरे से बाहर एक-एक कदम; कल की बाड़ छोटी लगती है। मैं अभी आज़ादी में कच्ची हूँ, पर आसमान उपहास नहीं करता। धीरे सही, जहाँ सीने में गरमी है। उसी नीली निस्तब्धता में, मैंने खुद को माफ़ करना सीखा।
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